जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में पिछले कुछ दिनों से लगातार आतंकी हमले हो रहे हैं। 3 नवंबर को भी आतंकियों ने श्रीनगर के सीआरपीएफ के बंकर को निशाना बनाकर ग्रेनेड फेंका, लेकिन यह ग्रेनेड बीच में ही फट गया, इससे बंकर तो बच गया, लेकिन 12 आम नागरिक घायल हो गए। जिस स्थान पर ग्रेनेड फटा वह मुख्यमंत्री के सरकारी आवास से मात्र आधा किलोमीटर दूर है। कई सरकारी संस्थान इसी इलाके में बने हुए हैं। ग्रेनेड से हमला बताता है कि आतंकी अब श्रीनगर में फिर से नाचने लगे हैं। अनुच्छेद 370 के हटने से पहले तक इसी श्रीनगर में वर्ष भर कर्फ्यू लगा रहता था। पिछले दिनों जब जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव हो रहे थे, तब 5 सितंबर को मैंने 'लोकतंत्र को नहीं कश्मीर को बचाने की जरूरत शीर्षक से ब्लॉग में स्पष्ट लिखा। चुनाव में जिस तरह अलगाववादी सक्रिय थे, उसे देखते हुए मैंने लिखा था कि चुनाव परिणाम के बाद हालात बिगड़ सकते हैं। पाठकों की जानकारी के लिए 5 सितंबर को लिखा ब्लॉग में एक बार फिर इस ब्लॉग के साथ पोस्ट कर रहा हंू। असल में अब जम्मू कश्मीर की कमान उसी अब्दुल्ला खानदान के पास आ गई है, जिसकी वजह से जम्मू कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा मिला। चुनाव में शांति रहना एक साजिश थी। चुनाव परिणाम आने के बाद से ही कश्मीर में आतंकी वारदातें बढ़ रही है। गंभीर बात तो यह है कि मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला पूर्ण राज्य का दर्जा देने के साथ साथ अनुच्छेद 370 की बहाली की भी मांग कर रहे हैं। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले माने या नहीं, लेकिन चुनाव और उसके परिणाम से जम्मू कश्मीर में उन लोगों को मजबूती मिली है जो आतंकवाद के पक्षधर हैं। आतंकियों का मकसद हमारे जम्मू कश्मीर को अलग कहना है। अभी भी समय है कि जब उमर अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त कर फिर से जम्मू कश्मीर खासकर कश्मीर घाटी में सख्ती की जानी चाहिए। यदि घाटी में लोकतंत्र की दुहाई दी जाती रही तो आतंकी मजबूत होते रहेंगे। जम्मू कश्मीर में जितने दिन उमर अब्दुल्ला की सरकार चलेगी, उतने दिन हालात बिगड़ते रहेंगे। कश्मीरियों ने उसी अब्दुल्ला खानदान की सरकार बनवाई है, जिसकी वजह से चार लाख हिंदुओं को कश्मीर छोड़ना पड़ा।
5 सितंबर 2024 को लिखा गया ब्लॉग - लोकतंत्र नहीं, कश्मीर को बचाने की जरूरत है :
पाकिस्तान की सीमा से सटे जम्मू कश्मीर में सितंबर माह में ही विधानसभा के चुनाव हो रहे है। कहा जा रहा है कि जम्मू कश्मीर खासकर मुस्लिम बाहुल्य कश्मीर घाटी में चुनाव होना भारत के लोकतंत्र की बहुत बड़ी जीत है। चूंकि चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से हो रहे हैं, इसलिए यह भी दावा किया जा रहा है कि जो नेता पूर्व में सुरक्षाबलों पर पत्थर फिंकवाते थे और कश्मीर की आजादी के नारे लगाते थे, वह भी चुनाव में भाग ले रहे हैं। इसमें जमात-ए-इस्लामी, अवामी इत्तेहाद पार्टी के कार्यकर्ता भी शामिल है। जिन मुस्लिम नेताओं पर हिंसा के आरोप लगे वह भी चुनाव में उम्मीदवार हैं। लेकिन सवाल उठता है कि क्या चुनाव के बाद भी कश्मीर घाटी में ऐसा ही माहौल रहेगा ऐसा तो नहीं कि विधायक बन जाने के बाद पूर्व अलगाववादी नेता विधानसभा में अनुच्छेद 370 की वापसी का प्रस्ताव स्वीकृत करवा दे। अब्दुल्ला खानदान और मुफ्ती खानदान की पार्टियां तो अभी से ही अनुच्छेद 370 की बहाली का वादा कर रही है। सब जानते हैं कि 370 के तहत कश्मीर घाटी से चार लाख हिंदुओं को प्रताड़ित कर भगा दिया। पूरी घाटी को हिंदू विहीन कर दिया गया। कश्मीर घाटी पूरी तरह आतंकवादियों के कब्जे में आ गई। 2019 से 370 के हटने के बाद जम्मू कश्मीर में हालात सामान्य हुए। अब कश्मीर की आजादी के नारे भी सुनाई नहीं देते। सवाल उठता है कि जो नेता 2019 से पहले आजादी को लेकर रहेंगे के नारे लगाते थे आज उनका हृदय परिवर्तन कैसे हो गया? क्या मात्र विधायक बन जाने से कश्मीर की आजादी वाला ख्वाब पूरा हो जाएगा? ऐसा तो नहीं कि चुनाव की आड़ में फिर से कश्मीर में अलगाववादी ताकतें मजबूत हो रही है? अब्दुल्ला और मुफ्ती खानदार वाली पार्टियां जब 370 की बहाली का प्रस्ताव रखेंगी तब कश्मीर घाटी से चुने हुए विधायक भी समर्थन करेंगे। और तब यह दिखाने की कोशिश की जाएगी की कश्मीर के लोग 370 की बहाली चाहते हैं। यदि चुनाव की आड़ में ऐसा हो रहा है तो यह देश के लिए खतरनाक होगा। आज लोकतंत्र को बचाने की नहीं बल्कि कश्मीर को बचाने की जरूरत है।
S.P.MITTAL BLOGGER (04-11-2024)
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