16 जुलाई को भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए (राजद्रोह) के दुरुपयोग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। सीजेआई एनवी रमना ने केन्द्र सरकार से पूछा जिस राजद्रोह कानून का इस्तेमाल अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन को दबाने के लिया, क्या आजादी के 75 साल बाद ऐसे कानून को बनाए रखना जरूरी है? अंग्रेजों ने इस कानून का इस्तेमाल महात्मा गांधी बाल गंगाधर तिलक और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को चुप कराने के लिए किया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने अनेक सवाल रख कर केन्द्र सरकार से जवाब मांगा है। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे राहुल गांधी भी इस कानून के दुरुपयोग पर अक्सर केन्द्र सरकार पर हमला करते हैं। लेकिन राजस्थान में तो इसी राजद्रोह कानून का इस्तेमाल कर गत वर्ष अशोक गहलोत ने अपनी सरकार बचा ली थी। सब जानते हैं कि गत वर्ष 8 जुलाई को सचिन पायलट के नेतृत्व में कांग्रेस के 18 विधायक दिल्ली चले गए थे। पायलट सहित इन सभी 19 विधायकों ने राजद्रोह जैसा कोई काम नहीं किया था और न ही देश की एकता और अखंडता को चुनौती देने वाला कोई बयान दिया, लेकिन इसके बाद भी राजस्थान एटीएस ने इसी राजद्रोह वाली धारा 124-ए और 120 बी में मुकदमा दर्ज कर लिया। इतना ही नहीं इस मुकदमे में बयान दर्ज करने के लिए सचिन पायलट सहित सभी 19 विधायकों को नोटिस जारी कर दिए। पायलट को तो नोटिस उपमुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए दिया गया। यह नोटिस एटीएस के एएसपी हरिप्रसाद ने 10 जुलाई 2020 को जारी किया। सवाल उठता है कि क्या एक अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक स्तर का अधिकारी सरकार के उपमुख्यमंत्री को बयान देने के लिए नोटिस जारी कर सकता है? जाहिर है कि मुकदमा दर्ज करने और नोटिस देने से पहले गृहमंत्री से अनुमति ली गई होगी। सब जानते हैं कि गृहमंत्री का प्रभार भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के पास ही है। अशोक गहलोत अपना आदर्श महात्मा गांधी को मानते हैं, इसलिए उनके समर्थक गहलोत को राजस्थान का गांधी मानते हैं। लेकिन उन्हीं अशोक गहलोत ने अपनी (अंग्रेजों वाली नहीं) सरकार बचाने के लिए उसी कानून का इस्तेमाल किया, जिससे अंगेज शासक महात्मा गांधी की आवाज को चुप करते थे। जिन लोगों ने आईपीसी की धारा 124-ए को चुनौती दी है, उनका कहना है कि यह विचारों की असहमति है। गत वर्ष जुलाई में भी अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच विचारों की असहमति थी। पायलट का कहना था कि भाजपा शासन में कांग्रेस के जिन कार्यकर्ताओं ने संघर्ष किया, उन्हें अब सरकार में भागीदारी मिलनी चाहिए। ऐसे बयानों में राजद्रोह की कोई बात नहीं है। जिन संजय जैन और भरत मालानी के ऑडियो टेप की बात कही जा रही है उन दोनों की हैसियत ऐसी नहीं कि वे गहलोत सरकार गिरा सके। सवाल यह भी है कि दो तीन व्यक्तियों की आपसी वार्ता को आधार बना कर राजद्रोह की धारा में मुकदमा क्यों दर्ज किया गया और इसी मुकदमे में नोटिस जारी कर अपनी ही सरकार के उपमुख्यमंत्री क्यों तलब किया गया? क्या इस धारा का अशोक गहलोत ने दुरुपयोग नहीं किया? जाहिर है कि सरकार किसी भी दल की हो, लेकिन अपने राजनीतिक स्वार्थ को पूरा करने के लिए उसी कानून का इस्तेमाल करती हैं जिसका अंग्रेजों ने महात्मा गांधी बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के विरुद्ध किया था। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद अशोक गहलोत चाहे कुछ भी सफाई दें, लेकिन राजस्थान पुलिस की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठते हैं। क्या एक ही पार्टी में असहमति को राजद्रोह की श्रेणी में जाना जा सकता है? यह सही है कि जिन पुलिस अधिकारियों ने राजद्रोह के मुकदमे की कार्यवाही की अब वे गहलोत सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त हैं। अशोक गहलोत अक्सर केन्द्र सरकार पर जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाते हैं। अब ऐसे आरोप लगाने से पहले गहलोत को अपनी पुलिस की कार्यप्रणाली भी देख लेनी चाहिए। गत वर्ष 10 जुलाई को एटीएस के एएसपी हरिप्रसाद ने सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री रहते हुए जो नोटिस भेजा था उसे मेरे फेसबुक www.facebook.com/SPMittalblog पेज पर पढ़ा जा सकता है।
S.P.MITTAL BLOGGER (16-07-2021)
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