Sunday 25 March 2018

ख्वाजा साहब की दरगाह के इतिहास में पहली बार हुआ दीवान के बगैर उर्स में गुसल।

ख्वाजा साहब की दरगाह के इतिहास में पहली बार हुआ दीवान के बगैर उर्स में गुसल। बेटे को उत्तराधिकारी बनाने पर विवाद।
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दुनिया भर में अजमेर स्थित सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह को सद्भावना की मिसाल माना जाता है, इसलिए ख्वाजा साहब के सालाना उर्स में देश के प्रधानमंत्री तक की ओर से सूफी परंपरा के अनुरूप चादर पेश की जाती है। लेकिन इसे अफसोसनाक ही कहा जाएगा कि 24 मार्च की रात को दरगाह दीवान जैनुल आबेदीन के बगैर ही उर्स का गुसल हो गया। दरगाह के 806 साल के इतिहास में पहला अवसर है कि सालाना उर्स की कोई धार्मिक परंपरा टूटी है। ख्वाजा साहब का छह दिवसीय उर्स 19 मार्च से शुरू हुआ था। उर्स की परंपरा है कि अंतिम दिन महफिल के बाद दरगाह दीवान गुसल की रस्म के लिए मजार शरीफ में जाते हैं। दीवान की रस्म के बाद ही दरगाह के खादिम मजार शरीफ को धोने का कार्य करते हैं। ख्वाजा साहब को मानने वाले अकीदतमंदों के लिए यह धार्मिक परंपरा बहुत महत्व रखती है। लेकिन 24 मार्च को महफिल के दौरान तब विवाद खड़ा हो गया, जब दरगाह दीवान जैनुल आबेदीन ने अपने बड़े बेटे सैयद नसीरुद्दीन चिश्ती उर्फ शेरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर नायब दीवान बना दिया। विवाद उस समय और बढ़ गया, जब आवेदीन गुसल के लिए अपने बेटे शेरू को भी साथ ले जाने लगे। उत्तराधिकारी की घोष्णा से खफा खादिमों ने आबेदीन और उसके बेटे शेरू को मजार शरीफ के दरवाजे पर ही रोक दिया। खादिमों का कहना था कि गुसल के लिए दीवान ही अधिकृत हैं, इसलिए दीवान के साथ उनके बेटे को प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाएगी। खादिमों के विरोध के चलते दीवान आबेदीन  और उनके पुत्र जमीन पर ही धरने पर बैठ गए। जायरीन से खचाखच भरी दरगाह में खादिमों और दीवान के विवाद से जिला प्रशासन के भी हाथ-पांव फूल गए। कलेक्टर गौरव गोयल और पुलिस अधीक्षक राजेन्द्र सिंह च ौधरी ने काफी देर तक समझाइश की, लेकिन दीवान आबेदीन अकेले जाने को तैयार नहीं हुए। खादिमों ने कुछ समय तक तो इंतजार किया, लेकिन फिर दीवान के बगैर ही गुसल की रस्म सम्पन्न कर ली। बाद में बड़ी मुश्किल से आबेदीन  और उनके पुत्र को धरने से उठाया गया। यानि दरगाह के इतिहास में पहली बार  है कि दीवान को गुसल के बगैर लौटना पड़ा।
आबेदीन तो खुद मुलाजिम हैं-खादिम समुदायः
दरगाह के खादिमों की संस्था अंजुमन सैयद जादगान के अध्यक्ष मोइन सरकार, सचिव हाजी सैयद वाहिद हुसैन तथा अंजुमन शेखजादगान के अध्यक्ष अब्दुल जर्रार चिश्ती, सचिव डाॅ. अब्दुल माजिद चिश्ती ने एक बयान जारी कर कहा है कि जैनुल आबेदीन तो दरगाह कमेटी के मुलाजिम हैं। दीवान की नियुक्ति भी दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट 1955 के अंतर्गत होती है। दरगाह कमेटी केन्द्रीय अल्पसंख्यक मामलात मंत्रालय के अधीन कार्य करती है। कोई मुलाजिम अपने बेटे को अपनी मर्जी से दरगाह कमेटी का मुलाजिम कैसे नियुक्त कर सकता है। आबेदीन इससे पहले भी कई बार ऐसे विवाद खड़े कर चुके हैं। पिछले दिनों तो अपने पौत्र को भी महफिल दीवान की गद्दी पर बैठा दिया। खादिमों ने कमेटी के नाजिम को पत्र लिख कर आबेदीन के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग की है। खादिमों का कहना रहा कि उर्स में गुसल की रस्म में आबेदीन के शरीक नहीं होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि दरगाह के अंदर सभी धार्मिक रस्मे खादिम समुदाय ही पूरा करता है।
उत्तराधिकारी बनाने का अधिकार है-आबेदीनः
वहीं दीवान आबेदीन ने कहा है कि सूफी और चिश्तिया परपंरा में उन्हें अपने बड़े पुत्र को उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार है। 24 मार्च की रात को जिस तरह खादिमों ने उन्हें गुसल की परंपरा से रोका है, उसमें सुप्रीम कोर्ट और राजस्थान हाईकोर्ट को स्वतः ही प्रसंज्ञान लेना चाहिए। उनकी दीवान के पद पर नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हुई है। आबेदीन ने आरोप लगाया कि प्रशासन भी खादिमों के दबाव में हैं।
चढ़ावे पर दोनों एक मतः
दरगाह की धार्मिक परंपराओं को लेकर भले ही खादिम और दीवान आमने-सामने हो, लेकिन दरगाह में जाने वाले चढ़ावे को लेकर दोनों एकजुट है। चढ़ावे के बंटवारे को लेकर सुप्रीम कोर्ट जब गाइड लाइन बनाई तो दोनों पक्षों ने अदालत के बाहर समझौता कर लिया। इस समझौते के अंतर्गत ही खादिम सप्रदाय आबेदीन को दीवान की हैसियत से 2 करोड़ रुपए सालाना देता है। अब चढ़ावे पर दीवान आबेदीन भी चुप है।

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