Friday 4 December 2015

कोटा में स्टूडेंट की मौतों का जिम्मेदार कौन?



अभिभावक, कोचिंग सेंटर या शिक्षा पद्धति।
राजस्थान का कोटा शहर शिक्षा माफिया के कारण पहले ही देश में प्रसिद्ध है, लेकिन इन दिनों छात्रों की लगातार हो रही मौतों की वजह से कोटा बदनामी का सामना कर रहा है। 3 दिसम्बर को ही यहां के एलन कोचिंग सेंटर में पढऩे वाले छात्र वरुण ने अपने कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है। पिछले एक वर्ष में कोटा के कोचिंग सेंटरों में पढऩे वाले 25 विद्यार्थियों ने इसी तरह आत्महत्या की है। सवाल उठता है कि आखिर इन कोचिंग सेंटरों में पढऩे वाले विद्यार्थी आत्महत्या क्यों करते हैं और इन मौतों का जिम्मेमदार कौन है?
सब जानते हैं कि इंजीनियर बनने के लिए कड़ी प्रतिस्पद्र्धा है। कोटा के कोचिंग सेंटर सिर्फ इंजीनियरिंग की परीक्षा उत्तीर्ण करने के करतब सिखाते हैं। हर माता-पिता चाहते हैं कि उनका बेटा या बेटी इंजीनियर बने और फिर किसी बड़ी कंपनी में नियुक्त होकर लाखों का पैकेज प्राप्त करें। इसलिए देशभर के अभिभावक अपने बच्चों को कोटा के कोचिंग सेंटरों में भेजते हैं ताकि इंजीनियरिंग की परीक्षा उत्तीर्ण की जा सके। कोटा के सेंटरों का दबदबा इसलिए हो रहा है कि यहां जो विद्यार्थी पढ़ते हैं, उनमें से ही इंजीनियरिंग की परीक्षा उत्तीर्ण करते हैं। परीक्षा चाहे कितनी भी कठिन हो, लेकिन कोटा का विद्यार्थी सफल हो ही जाते हैं। लेकिन इसके लिए विद्यार्थियों को बेहद तनाव के दौर से गुजरना होता है। कोचिंग सेंटर वाले हर सप्ताह टेस्ट लेते हैं और जब टेस्ट का परिणाम आता है तो अनेक विद्यार्थी मानसिक दबाव में आ जाते हैं। विद्यार्थियों को लगता है कि उनके माता-पिता लाखों रुपया खर्च कर कोचिंग करवा रहे हैं, लेकिन इसके बाद भी वे अपने अभिभावकों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे है। मानसिक तनाव की वजह से ही कोटा में लगातार आत्महत्याओं की वारदातें बढ़ रही है। गंभीर बात यह है कि छात्रों की आत्महत्याओं से कोचिंग सेंटर के मालिकों पर कोई असर नहीं पड़ता। सेंटर वाले अपने तरीके से पढ़ाई करवाकर लाखों रुपए फीस के तौर पर वसूल रहे हैं। सरकार शिक्षा नीति में सुधार का कितना भी ढिंढोरा पीट ले, लेकिन विद्यार्थियों को तो कोटा के कोचिंग सेंटरों में जाना ही पड़ता है। सरकार के पास ऐसी कोई नीति नहीं है, जिससे विद्यार्थियों को कोचिंग सेंटरों से बचाया जा सके। 
सरकार न तो अपनी नीति में कोई सुधार करती है और न ही कोचिंग सेंटरों के खिलाफ कोई कार्यवाही करती है। ऐसे में अभिभावकों की यह मजबूरी होती है कि वे अपने बच्चों को पढऩे के लिए इन्हीं कोचिंग सेंटरों में भेजते है और जब लाखों रुपया खर्च कर कोचिंग सेंटरों में बच्चों को पढ़ाया जाता है तो हर अभिभावक चाहता है कि उसका बच्चा भी साप्ताहिक टेस्ट में सौ में से सौ अंक प्राप्त करें ताकि इंजीनियरिंग की परीक्षा उत्तीर्ण कर सके। इसी का नतीजा होता है कि पढ़ाई में पीछे रह जाने वाले विद्यार्थी आत्महत्या कर लेते हैं। क्या सरकार ऐसी नीति नहीं बना सकती जिससे युवा वर्ग को उसकी काबिलियत के अनुरूप रोजगार मिल जाए। इसे समाज और देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि एक बच्चा वकील बनना चाहता है तो उसके अभिभावक उसे इंजीनियर बनने का दबाव डाल रहे है। कोटा में जिस तरह युवा वर्ग आत्महत्या कर रहा है, उसको देखते हुए सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए। न केवल कोचिंग सेंटरों पर लगाम लगाई जाए बल्कि इंजीनियर अथवा अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं को सरल बनाया जाए। जिन विद्यार्थियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है उनकी मानसिक स्थिति की कल्पना करने से ही डर लगता है। अभिभावकों को भी चाहिए कि वे पर बेवजह का दबाव न डाले, अन्यथा आत्महत्या के परिणाम ही सामने आएंगे।
(एस.पी. मित्तल)
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