Tuesday 28 July 2015

जब राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम से हुई मेरी मुलाकात


(spmittal.blogspot.in)

मेरे पत्रकारिता के जीवन में देश विदेश के अनेक अतिविशिष्ट व्यक्तियों से मुलाकात हुई है। ऐसे मुलाकातें प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों में कार्य करते हुए अथवा अपने भभक पाक्षीक के सम्पादक रहते हुए हुई। ऐसी ही एक मुलाकात 17 नवम्बर 2005 को अजमेर के सर्किट हाऊस में राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम से हुई। यह मुलाकात आज भी मेरे लिए महत्त्व रखती है। मैं कलाम के निधन पर आज कुछ नया लिखने के बजाए पुराना ही पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हंू। आप स्वयं देखें कि राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए कलाम साहब देश के राजनेताओं और फांसी के संबंध में क्या विचार रखते थे। भभक के 1 दिसम्बर, 2005 के अंक में प्रकाशित आलेख आज भी प्रसांगिक है। खास बात ये थी कि कलाम साहब से सवाल मैंने नहीं, बल्कि मेरी बिटिया हर्षिता ने पूछे थे। बच्चों को स्नेह करने वाले कलाम साहब ने सभी सवालों का जवाब शानदार तरीके से दिया। मुलाकात की खबर को जब 1 दिसम्बर, 2005 के भभक के अंक में प्रकाशित किया तो कलाम साहब ने न केवल खबर पढ़ी बल्कि पत्र लिखकर अपनी ओर से शुभकामनाएं भी भिजवाई। कलाम साहब मेरे लेखन को निरंतर भभक में पढ़ते रहे। कभी कभार मेरी हौंसला अफजाई भी करते रहे। कलाम साहब जैसे राष्ट्रपति द्वारा भिजवाए गए पत्र मेरे लिए गर्व की बात है। कलाम साहब ने अनेक पत्र भिजवा कर यह भी प्रदर्शित किया कि सुंदर लेखन किसी बड़े अखबार का मोहताज नहीं होता। मेरे लिए इससे बड़ी और क्या बात हो सकती है कि कलाम साहब स्वयं ने प्रशंसा की है।
भभक के 1 दिसम्बर 2005 के अंक में कलाम साहब पर प्रकाशित आलेख
वाकई भारत के राष्ट्रपति कमाल के हैं
अजमेर। देश के कुछ राजनेता राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को राजनीति में कम ज्ञान वाला व्यक्ति मानते हों, लेकिन ऐसा नहीं है। किसी भी समारोह में राजनेताओं से दूरी बनाकर सिर्फ बच्चों से संवाद कायम करने का यह मतलब नहीं है कि ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को राजनीति नहीं आती है। वे भले ही एक सीधे-सादे वैज्ञानिक से विश्व के सबसे बड़े लोक-तांत्रिक देश भारत के राष्ट्रपति बने हों, लेकिन उनकी सूझबूझ किसी भी कूटनीतिज्ञ देश के राष्ट्रपति से कम नहीं है। ऐसा मैंने व्यक्तिगत तौर पर अनुभव किया है। श्री कलाम से मुझे गत 17 नवम्बर को अजमेर के सर्किट हाऊस में मिलने का अवसर मिला। हालांकि यह मुुलाकात एक पत्रकार और राष्ट्रपति के बीच नहीं थी। लेकिन फिर भी देश के दो महत्वपूर्ण मुद्दों के सवालों का जवाब राष्ट्रपति ने ''कमाल के दिए। राष्ट्रपति को भी यह उम्मीद नहीं थी कि बच्चों से मुलाकात में ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों से जुड़े सवालों का जवाब अचानक देना पड़ेगा। मैं यहां यह बताना चाहता हूं कि हमारे यहां राष्ट्रपति का संवैधानिक पद है और राष्ट्रपति के मुंह से निकला एक-एक शब्द पत्थर की लकीर होता है। इसलिए अधिकांशत: राष्ट्रपति किसी भी  समारोह में लिखा हुआ भाषण ही पढ़ते हैं।
17 नवम्बर को जब सर्किट हाऊस में राष्ट्रपति से मुलाकात हुई तो मेरी पुत्री हर्षिता ने सवाल पूछा कि क्या बच्चों को देश के राजनेेताओं का अनुसरण करना चाहिए? किसी भी राष्ट्रपति के लिए इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं था, और जब ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे सीधे-सादे गैर राजनीतिज्ञ राष्ट्रपति को जवाब देना हो तो यह और भी मुश्किल भरा काम था। यदि राष्ट्रपति यह कहते कि राजनेताओं का अनुसरण करना चाहिए तो सवाल उठता कि क्या बच्चे बंगारू लक्ष्मण, शहाबुद्दीन, राजा भैया, नटवरसिंह, लालू प्रसाद यादव, नरेन्द्र मोदी, बाल ठाकरे, जयललिता जैसे राजनेताओं का अनुसरण करें। और यदि राष्ट्रपति कहते कि बच्चों को राजनेताओं का अनुसरण नहीं करना चाहिए तो देश के राजनेता नाराज हो जाते। लेकिन इस सवाल का राष्ट्रपति ने बहुत सूझ-बूझ तरीके से जवाब दिया। उन्होंने देश के राजनेताओं पर कोई टिप्पणी किए बगैर कहा कि बच्चों को एक अच्छा नागरिक बनना चाहिए। यदि बच्चे अच्छे नागरिक बन जायेंगे तो उन्हें किसी के अनुसरण की जरूरत नहीं है।
मैं ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को किसी विवाद में नहीं डालना चाहता, लेकिन इस मौके पर इतना जरूर लिखना चाहता हूं कि भारत के राजनेताओं को श्री कलाम के इस जवाब से कुछ सीख लेनी चाहिए। सवाल उठता है कि बच्चे अपने देश के राजनेताओं का अनुसरण क्यों नहीं करें? जब हम वोट देकर नेताओं को राज चलाने का अधिकार देते हैं तो यह उम्मीद भी करते हैं कि राजतन्त्र सही चलेगा। लेकिन यह हमारे लोकतन्त्र की खामी ही है कि बच्चे ऐसे राजनेताओं का अनुसरण नहीं कर सकते। देश के राजनेताओं को चाहिए कि वह ऐसे बने कि ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे राष्ट्रपति गर्व से कह सकें कि बच्चों को देश के राजनेताओं का अनुसरण करना चाहिए।
हर्षिता का दूसरा महत्वपूर्ण सवाल स्वयं ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की पहल से जुड़ा हुआ था। पिछले दिनों राष्ट्रपति ने केन्द्र सरकार को अपनी भावनाओं से अवगत कराया कि फांसी की सजा नहीं दी जानी चाहिए। मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सजा का फैसला होने के बाद भी अभियुक्त राष्ट्रपति के पास अपील कर सकता है। देश भर की ऐसी कई अपीलें राष्ट्रपति के पास विचाराधीन हैं। राष्ट्रपति ने फांसी की सजा माफ करने की अपनी भावना से केन्द्र सरकार को अवगत तो करा दिया, लेकिन यह बात सामने नहीं आई कि इस भावना के पीछे राष्ट्रपति के तर्क क्या हैं? आखिर राष्ट्रपति फांसी की सजा क्यों माफ करना चाहते हैं। भारत ही नहीं बल्कि दुनिया में श्री कलाम की इस भावना पर अभी बहस छिड़ी हुई है। सब लोग राष्ट्रपति के तर्क जानने के इच्छुक हैं। राष्ट्रपति को भी यह उम्मीद नहीं थी कि जिस सवाल का जवाब दुनिया भर का मीडिया चाहता है, उसका जवाब अजमेर के सर्किट हाऊस में देना पड़ेगा। लेकिन जब राष्ट्रपति के सामने सवाल आया तो उन्होंने जवाब भी दिया।
देश में अब किसी को फांसी की सजा नहीं हो कि भावना के पीछे राष्ट्रपति ने तर्क दिया कि जिन्दगी लेने और देने का अधिकार सिर्फ भगवान के पास है। जब हमारे पास जिन्दगी देने का हक नहीं है तो हम लेेने का हक भी नहीं रखते। राष्ट्रपति का यह तर्क आंतकवाद के सामने कितना मायने रखता है, यह आने वाला वक्त ही बतायेगा। लेकिन मैं राष्ट्रपति के इस तर्क से सहमत हूं। श्री कलाम ने भगवान की जो बात कही है, उसमें बहुत दम है। इसमें कोई दो राय नहीं कि व्यक्ति अपने और दूसरे के कर्म का फैसला भगवान पर छोड़ दे तो उसका फैसला सही ही होगा। इसका मतलब यह नहीं कि देश से कानून का राज ही समाप्त कर दिया जायें। राष्ट्रपति का तर्क सिर्फ फांसी के सन्दर्भ में ही देखा जाना चाहिए। हर्षिता के सवाल पर राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि अपराधी को उम्र कैद की सजा देकर सुधरने का अवसर देना चाहिए। हमारा देश धर्म प्रदान देश है और भारत का यह सौभाग्य है कि आज देश के राष्ट्रपति के पद पर एक ऐसा इंसान विराजमान है, जो बड़े से बड़े अपराधी का फैसला भगवान के अनुरूप करने की मंशा रखता है।
मेरी इस मुद्दे पर राष्ट्रपति से कोई आध्यात्मिक चर्चा नहीं हुई है, लेकिन मैं इतना जरूर कह सकता हूं कि यदि ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की भावनाओं के अनुरूप देश चले तो समाज में अपराध होंगे ही नहीं, क्योंकि किसी भी धर्म का भगवान गलत शिक्षा नहीं देता। जब हम अल्लाह और ईश्वर की शिक्षाओं के अनुरूप इंसानियत का पाठ पढ़ लेगें तो हम किसी के थप्पड़ तो क्या दिल दुखाने वाली बात भी नहीं कहेंगे। और यदि देश में ऐसे समाज की संरचना होगी तो धरती पर स्वर्ग होगा। मैं सोचता हूं कि राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की फांसी की सजा माफ करने के पीछे यही संवेदनाएं काम कर रही होगी। केन्द्र सरकार श्री कलाम के प्रस्ताव को माने या नहीं माने, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन इतना जरूर है कि ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपने इंसानियत के मुकाम को और ऊँचा कर लिया है।
(एस.पी. मित्तल)M-09829071511

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