Wednesday 4 November 2015

इस असंवेदनशीलता पर चुप क्यों है अवार्ड लौटाने वाले!



दफन हो गया छाबड़ा का बलिदान
दादरी में अखलाक और कर्नाटक में एक साहित्यकार की हत्या के विरोध में केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा कर साहित्यकारों और फिल्मकारों ने जो अवार्ड लौटाने का सिलसिला शुरू किया था वह आज भी थमा नहीं है। इन दोनों घटनाओं के विरोध में ही 3 नवम्बर को सोनिया गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने दिल्ली में पैदल मार्च भी किया। लेकिन ऐसे लोगों की नजर में पूर्व विधायक और सर्वोदयी कार्यकर्ता गुरुशरण छाबड़ा की मौत कोई मायने नहीं रखती है। जबकि हकीकत में देखा जाए तो छाबड़ा की मौत से बड़ी कोई घटना हो ही नहीं सकती। छाबड़ा 2 अक्टूबर से आमरण अनशन पर थे। छाबड़ा राजस्थान में पूर्ण शराबबन्दी को लेकर अनशन कर रहे थे। छाबड़ा को अनशन स्थल से जबरन उठाकर सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। तब भी राजस्थान की भाजपा सरकार और उसकी महारानी सीएम वसुंधरा राजे के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। सरकार के किसी भी प्रतिनिधि ने छाबड़ा के अनशन की सुध नहीं ली। छाबड़ा भी अपनी जिद्द पर अड़े रहे और आखिर 3 नवम्बर को सुबह 4 बजे जयपुर के एसएमएस अस्पताल में दम तोड़ दिया। क्या इसे सरकार द्वारा की गई हत्या नहीं कहा जाएगा? कर्नाटक और यूपी की घटनाओं को लेकर तो केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है लेकिन राजस्थान की सरकार के खिलाफ कोई आवाज बुलन्द नहीं की जा रही। गुरुशरण छाबड़ा कोई अपने परिवार की मांग को लेकर अनशन नहीं कर रहे थे बल्कि सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे को लेकर अनशन पर थे। यदि कोई साहित्यकार अथवा फिल्मकार छाबड़ा की हत्या के विरोध में अपना अवार्ड लौटाता है तो उसका कदम 100 प्रतिशत सही माना जाएगा। जिस मामले में सरकार की असहनशीलता है उस मामले में साहित्यकार, फिल्मकार और कांग्रेस के नेताओं ने चुप्पी साध रखी है। इसकी वजह यह होगी इन सभी को शराब से प्रेम है। केवल शराब से बल्कि शराब बेचने वालों से भी ऐसे लोगों का लगाव है। ऐसे लोग नहीं चाहते कि राजस्थान में शराबबन्दी हो। मुझे तरस आता है कि मीडिया की भूमिका पर भी। छोटी-छोटी घटनाओं को लेकर पाकिस्तान में बैठे आतंककारियों की लाइव डिबेट दिखाई जाती है, लेकिन छाबड़ा के बलिदान पर पूरा मीडिया चुप है। क्योंकि मीडिया में राजस्थान सरकार के 19 नवम्बर से शुरू होने वाले रिसर्जेन्ट राजस्थान के विज्ञापन दिखाए जा रहे हैं। मीडिया या तो विज्ञापन दिखाता है और विज्ञापन नहीं मिलते तो खबर चलाता है। अब चूंकि देशभर के न्यूज चैनलों में रिसर्जेन्ट राजस्थान के विज्ञापन चल रहे हैं तो फिर गुरुशरण छाबड़ा की सरकारी हत्या की खबर कैसे चल सकती है? इसलिए मेरा मानना है कि छाबड़ा का बलिदान दफन हो गया। दिखाने के लिए प्रिन्ट और इलेक्ट्रिोनिक मीडिया में छोटी खबर दी गई। सवाल उठता है कि क्या छाबड़ा का बलिदान मामूली है? कांग्रेस और भाजपा दोनों ही महात्मा गांधी की दुहाई देते हैं लेकिन उसी महात्मा गांधी के अनुयायी के बलिदान का दोनों दल मजाक उड़ाते हैं। कम से कम राजस्थान के साहित्यकारों, फिल्मकारों और अन्य कलाकारों को तो अपने अवार्ड इस मुद्दे पर लौटाने ही चाहिए।
(एस.पी. मित्तल)(spmittal.blogspot.in)M-09829071511

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