Saturday 30 January 2016

नेत्रहीन, मूक-बधिर, मंदबुद्धि का बनकर करें दिव्यांग बच्चों की पीड़ा का अहसास।



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समाज में ऐसे अनेक दानदाता मिल जाएंगे जो दिव्यांग बच्चों से जुड़ी संस्थाओं का सहयोग करते हैं लेकिन सवाल उठता है कि क्या किसी सामान्य व्यक्ति ने नेत्रहीन, मूक बधिर, मंदबुद्धि का बनकर दिव्यांग बच्चों की पीड़ा का अहसास किया? ऐसे ही सवाल को लेकर 30 जनवरी को अजमेर के निकटवर्ती चाचियावास स्थित मीनू मनोविकास स्कूल के परिसर में बच्चों का एक मेला आयोजित हुआ। इस मेले का शुभारंभ रेंज के आईजी श्रीमती मालिनी अग्रवाल के साथ-साथ मैंने तथा सामाजिक कार्यकर्ता सोमरत्न आर्य ने किया। इस मेले का यही उद्देश्य था कि सामान्य बच्चे दिव्यांग बच्चों की पीड़ा का अहसास करें। मेले में जो स्टॉल लगाई गई, उनके माध्यम से भी सामान्य बच्चों को बताया गया कि नेत्रहीन, मूक-बधिर, मंदबुद्धि का बच्चे किस प्रकार अपना जीवन जीते हैं। स्कूल की निदेशक क्षमा कौशिक और सीईओ राकेश कौशिक ने बताया कि आज इस मेले में सामान्य और दिव्यांग बच्चों को एक साथ शामिल किया गया है। उनकी स्वयं की संस्था में पढऩे वाले दिव्यांग बच्चों के साथ-साथ मयूर, मेयो, सेंट जोजफ दयानंद बाल निकेतन, रेयान इंटरनेशनल, सावित्री प्रेसीडेंसी आदि स्कूल के सामान्य बच्चों को भी बुलाया गया। आईजी श्रीमती अग्रवाल ने संवेदनशीलता के साथ यह जाना कि दिव्यांग बच्चों की क्या-क्या परेशानी होती है। उनका कहना रहा कि ऐसे मेले से दिव्यांग बच्चों का आत्मविश्वास भी बढ़ता है। जब एक मंदबुद्धि का बच्चा सामान्य बच्चों के साथ क्रिकेट खेलेगा तो मंदबुद्धि वाले बच्चों का विकास तेजी से होगा। इस प्रकार यदि कोई मूक विद्यार्थी बोलने वाले विद्यार्थी के साथ काम करेगा तो हो सकता है मूक विद्यार्थी की जुबान की आवाज भी खुलने लगेगी। मेले में मेरी राय थी कि जब तक हम दिव्यांग नहीं बनेंगे तब तक उनकी पीड़ा का अहसास नहीं होगा। मैंने एक स्टॉल पर काला चश्मा लगाया और यह समझा कि नेत्रहीन व्यक्ति किस प्रकार से जीवन जीता है। सरकार ने दिव्यांग बच्चों की मदद के लिए अनेक योजना चला रखी है लेकिन इन योजना का पूरा लाभ दिव्यांग बच्चों को नहीं मिलता है जबकि इन बच्चों और अभिभावकों की अपनी परेशानी होती है। कई अभिभावक ऐसे दिव्यांग बच्चों को घर में भी नहीं रख सकते। स्कूल के निदेशक कौशिक ने बताया कि उनकी संस्था में दिव्यांग और सामान्य दोनों तरह के बच्चों को पढ़ाया जाता है। दिव्यांग बच्चों का जीवन वाकई में कष्टदायक होता है लेकिन यदि नई तकनीक अपना कर बच्चों को पाला जाए तो कठिनाई कम हो सकती है। कई बार जानकारी के अभाव में बच्चों को कष्ट सहने के लिए छोड़ दिया जाता है। मेले में मेरा भी यह मानना रहा कि जिस बच्चे का जन्म हुआ है वह किसी से भी कमजोर नहीं है। यदि ईश्वर ने कष्ट दिया है तो कष्ट सहने की ताकत भी दिव्यांग बच्चों को दी है।
(एस.पी. मित्तल)  (30-01-2016)
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