23 अक्टूबर को कुछ साहित्यकारों और लेखकों ने दिल्ली में केन्द्रीय साहित्य अकादमी के दफ्तर के बाहर प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारियों का आरोप रहा कि लेखकों की हत्या और देश में सांप्रदायिक सद्भावना के माहौल के बिगडऩे पर साहित्य अकादमी प्रभावी भूमिका नहीं निभा रही है। इसमें पहले चुनिन्दा साहित्यकारों और लेखकों ने साहित्य अकादमी द्वारा दिए गए पुरस्कार भी लौटाए। समझ में नहीं आता कि कुछ लोगों ने विरोध का यह रास्ता क्यों चुना है? जहां तक साहित्यकारों अथवा लेखकों की हत्या का सवाल है तो उसके लिए संबंधित राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं। वहीं यदि माहौल बिगडऩे का अहसास हो रहा है तो क्या माहौल को सुधारने की जिम्मेदारी साहित्यकार और लेखक की नहीं है? आखिर साहित्यकार और लेखक भी तो समाज के ही अंग हैं। क्या पुरस्कार लौटाने और सड़क पर प्रदर्शन करने से माहौल सुधर जाएगा? अच्छा होता कि देशभक्ति की भावना से ऐसे साहित्यकार और पत्रकार ऐसा लेखन करते जिससे माहौल सुधरता। असल में कुछ लोग अपने राजनीतिक नजरिए से केन्द्र की नरेन्द्र मोदी की सरकार के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। सवाल उठता है कि कर्नाटक और यूपी में साहित्यकारों की जो हत्याएं हुई, उसमें केन्द्र सरकार का क्या दोष है? यह माना कि साहित्यकार और लेखक अथवा किसी भी सामान्य व्यक्ति की हत्या नहीं होनी चाहिए। लेकिन इसके लिए सीधे पीएम को जिम्मेदार ठहराना भी तो उचित नहीं है। सरकार की ओर से बार-बार अपील की गई है कि कोई भी साहित्यकार अथवा लेखक अपने पुरस्कार न लौटाएं। साहित्यकारों को सरकार की इस अपील को ध्यान में रखना चाहिए। कुछ लोगों के प्रदर्शन पर न्यूज चैनल वालों को मजा आ गया है। इसलिए 23 अक्टूम्बर को चैनल वाले दिनभर राग अलापते रहे कि वामपंथी और दक्षिणपंथी में साहित्यकार विवादित हो गए हैं। साहित्यकार अथवा लेखक को यदि वामपंथी और दक्षिणपंथी में बांटा गया तो फिर देशहित में स्वतंत्र लेखन कैसे होगा।
(एस.पी. मित्तल)(spmittal.blogspot.in)M-09829071511
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